शब्द वही रहते हैं, कथाएं बदल जाती हैं,
रिश्ते वही रहते हैं, व्यथाएँ बदल जातीं हैं,
दिन-रात वही रहते हैं, आकांक्षाएं बदल जाती हैं,
समय वही रहता है, पर अवस्थाएं बदल जाती हैं।
सावन के मौसम में धाराएं बदल जातीं हैं,
पंक्षियों के विचरण की सीमाएं बदल जातीं हैं,
झूमती गाती इस धरा की गहराई बदल जाती है,
पर अंधकार में अपनी ही परछाई बदल जाती हैं।
यौवन के सुख में क्रीड़ाएं बदल जातीं हैं,
बुढ़ापे में शरीरिरिक सीमाएं बदल जातीं हैं,
अपने ही बच्चों की निगाहें बदल जातीं हैं,
मौन सी चीखें हैं वरना पनाहें बदल जातीं हैं।
-शमीरतन जी साह